Top 50 Kabir Ke Dohe: ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल

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Kabir Ke Dohe: पाखंडवाद के खिलाफ संत कबीर दास के तर्कशील दोहे

जातिवाद और पाखंडवाद के खिलाफ आवाज Kabir Ke Dohe 500 साल पहले जितने महत्वपूर्ण थे, उतने ही आज भी हैं। उनके दोहे आज के समाज में जातिवाद और पाखंडवाद के खिलाफ संघर्ष करने के लिए प्रेरणा देते हैं।

पाखंडवाद के खिलाफ: संत कबीर दास के तर्कशील Top 50 दोहे और ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल
Kabir Ke Doh

पाखंडवाद के खिलाफ Kabir Ke Dohe –

कबीर दास जी के दोहे समाज और धर्म पर उनकी सूक्ष्म दृष्टि को दर्शाते हैं। उनकी गहन दृष्टि और जीवन के अनुभवों को प्रतिबिंबित करते हैं। पाखंडवाद के खिलाफ उनकी लेखनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके समय में थी। आइए प्रत्येक Kabir Ke Dohe का अर्थ समझते हैं:

1. चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए, दो पाटन के बीच यार साबुत बचा ना कोए।

अर्थ: चक्की के दो पाटों के बीच में कुछ भी साबुत नहीं बचता, वैसे ही समय के चक्की में कोई भी व्यक्ति, चाहे कितना ही बलशाली क्यों न हो, नहीं बच सकता।

2. कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक। भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक।

अर्थ: एक ही कुएं से अनेक लोग पानी भरते हैं और बर्तनों में भले ही भेद हो, पर पानी एक ही होता है, वैसे ही सभी धर्मों में बुनियादी सत्य एक ही है।

3. भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनियां भरन से छूटी, मोरे सिर से टली बला।

अर्थ: इस दोहे में कबीर ने सांसारिक बंधनों से मुक्ति का सुख व्यक्त किया है। गगरी (मटकी) का टूटना प्रतीक है बंधनों के टूटने का, जिससे व्यक्ति मोहमाया से मुक्त हो जाता है।

4. माटी कहे कुम्हार से तू का गोंधत मोए, एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं गूंधूंगी तोय।

अर्थ: कुम्हार मिट्टी को गूंथता है, वैसे ही एक दिन मिट्टी (मृत्यु) सभी को गूंथेगी।

5. जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

अर्थ:– इस दोहे में कबीर ज्ञान की महत्ता पर जोर देते हैं। व्यक्ति की जाति नहीं, बल्कि उसके ज्ञान को महत्व दिया जाना चाहिए, जैसे तलवार का मोल किया जाता है, न कि उसकी म्यान (खोल) का।

6. तिनका कबहूं ना निंदिये, जो पांव तले होय। कबहूं उड़ आंखों मे पड़े, पीर घनेरी होय।

अर्थ: इस दोहे में कबीर छोटे से छोटे व्यक्ति या वस्तु का भी अनादर नहीं करने की सीख देते हैं। तिनका भले ही पांव तले कुचला जाए, लेकिन अगर वह आंखों में चला जाए तो बहुत पीड़ा देता है।

7. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही। सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।

अर्थ: जब व्यक्ति ‘मैं’ के अहंकार में रहता है, तब ईश्वर नहीं मिलते, और जब ‘मैं’ समाप्त होता है, तब ईश्वर मिलते हैं।

8. निंदक नियेरे राखिये, आंगन कुटी छावायें। बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए।

अर्थ: इस दोहे में कबीर निंदकों (आलोचकों) को पास रखने की सलाह देते हैं। वे व्यक्ति को बिना पानी और साबुन के स्वच्छ बना देते हैं, यानी उनकी आलोचना से व्यक्ति सुधार और विकास करता है।

9. गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच। हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच।

अर्थ: गाली-गलौच से केवल झगड़े और कष्ट पैदा होते हैं। जो व्यक्ति झगड़े से हार मानकर शांति से चले जाता है, वही साधु (महान) है, और जो झगड़े में लगा रहता है, वही नीच है।

10. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

अर्थ:– इस दोहे में कबीर सच्चे ज्ञान की व्याख्या करते हैं। केवल किताबें पढ़ने से कोई पंडित नहीं बनता, प्रेम के ढाई अक्षर पढ़कर ही सच्चा पंडित बना जा सकता है।

11. ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोए, औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।

अर्थ:– इस दोहे में कबीर मधुर और सौम्य वाणी बोलने की सलाह देते हैं, जिससे दूसरों को शांति और सुख मिले और खुद भी शांति का अनुभव हो।

12. पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़, घर की चाकी कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार।

अर्थ:– इस दोहे में कबीर मूर्तिपूजा की आलोचना करते हैं। वे कहते हैं कि अगर पत्थर की पूजा से भगवान मिलते, तो मैं पूरे पहाड़ को पूजता। लोग चाकी (चक्की) की पूजा नहीं करते, जो पूरे संसार का अन्न पीसती है।

13. माटी का एक नाग बनाके, पुजे लोग लुगाया, जिंदा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया।

अर्थ:– इस दोहे में कबीर सामाजिक पाखंड पर प्रहार करते हैं। लोग मिट्टी के बने नाग की पूजा करते हैं, लेकिन जब असली नाग सामने आता है, तो उसे मारने की कोशिश करते हैं।

14. हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना, आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।

अर्थ:– इस दोहे में कबीर धार्मिक भेदभाव की निंदा करते हैं। हिन्दू राम को प्यारा मानते हैं और तुर्क (मुस्लिम) रहमान को, लेकिन दोनों ही इस सच्चाई को नहीं समझते और आपस में लड़ते रहते हैं।

15. मल मल धोएं शरीर को धोएं ना मन का मैल, नहाए गंगा, गोमती रहे बैल के बैल।

अर्थ:– इस दोहे में कबीर बाहरी पवित्रता के बजाय आंतरिक शुद्धता पर जोर देते हैं। केवल शरीर को मल-मलकर धोने से मन की मैल नहीं जाती। गंगा और गोमती में स्नान करने से व्यक्ति बैल का बैल ही रहता है, अगर उसका मन साफ नहीं होता।

16. कबीरा कहे हे जग अंधा,अंधी जैसी गाय, बछडा था सो मर गया, झुठी चाम चटाय।

अर्थ:– इस दोहे में कबीर संसार की अज्ञानता पर कटाक्ष करते हैं। जैसे गाय अपने मृत बछड़े को चाटती रहती है, वैसे ही दुनिया भी झूठ और माया में उलझी रहती है।

17. नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।

अर्थ:केवल बाहरी स्नान से क्या होता है, अगर मन की मैल नहीं जाती। जैसे मछली हमेशा जल में रहती है, लेकिन उसकी गंध नहीं जाती।

18. ज्यों तिल माशराइ नींद, ज्यों धीमी आग पिराई। कबीर करारा कुफर, अब टूटी जिंदगानी॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि जैसे तिल में तेल और चकमक में आग छिपी होती है, उसी तरह सत्य जीवन में भी छिपा होता है। कबीर की कठोर बातें जीवन की सच्चाई को प्रकट करती हैं।

19. अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बंदे। एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले को मंदे॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि सबसे पहले अल्लाह ने नूर (प्रकाश) उत्पन्न किया, जिससे सभी प्राणियों की रचना हुई। एक नूर से सब जगत उपजा, फिर कौन अच्छा और कौन बुरा?

20. कबीरा तेरी झोंपड़ी, गल कटियन के पास।  जो करेंगे सो भरेंगे, तू क्यों भया उदास॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि उनकी झोंपड़ी कसाइयों के पास है। जो करेंगे, वे खुद भरेंगे, तुम क्यों उदास होते हो।

21. साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उडाय॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि साधु ऐसा होना चाहिए जैसे कि सूप, जो सार को पकड़ लेता है और थोथे को उड़ा देता है।

22.  बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब वह दुनिया में बुराई ढूंढने निकले, तो कोई बुरा नहीं मिला। जब उन्होंने अपने मन को देखा, तो सबसे बुरा स्वयं को पाया।

23. सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप। जाके हिरदै सांच है, ताके हिरदै आप॥

अर्थ: सत्य के समान कोई तपस्या नहीं और झूठ के समान कोई पाप नहीं। जिसके हृदय में सत्य है, उसके हृदय में ईश्वर का वास है।

24. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥

अर्थ: माला फेरते हुए युग बीत गया, लेकिन मन का फेर नहीं बदला। हाथ की माला को छोड़ दो, मन की माला फेरो।

25.  जा मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद। कब मरिहूँ कब पाविहूँ, पुरण परम आनंद॥

अर्थ: जिस मृत्यु से दुनिया डरती है, वही मेरे मन को आनंद देती है। मैं कब मरूँ और पूर्ण परम आनंद को प्राप्त करूँ।

26.  पानी बिच मीन पियासी, मोहे सुन-सुन आवे हासी। हंस चुने मोती, पारख जाने पीर॥

अर्थ: पानी में मछली प्यासे होने की बात सुनकर मुझे हँसी आती है। मोती को हंस ही चुनता है, पारखी ही उसकी पीड़ा को समझता है।

27. कबीर लंगर कबहुँ न टूटै, संत करें भोजन। दोहावन का मोल नहीं, सांचे मन की होवण॥

अर्थ: कबीर का लंगर कभी नहीं टूटता, संत इसमें भोजन करते हैं। सच्चे मन की भावना का कोई मोल नहीं है।

28. कबीरा तुझ में एक घटो, मनुष्य जन्म मिल्या रे। राम नाम की ओट है, सांचे गुरु से पिया रे॥

अर्थ: कबीर कहते हैं, तुझमें एक बात की कमी है, तुझे मनुष्य जन्म मिला है। राम नाम की ओट (छाया) है, सच्चे गुरु से प्रेम कर।

29. कबीर देवता तो है, पर वो है निराकार। मन में खोजो रे मियां, बाहर काहे डारत नार॥

अर्थ: कबीर कहते हैं, भगवान तो हैं, लेकिन वे किसी खास रूप में नहीं हैं। उन्हें अपने भीतर खोजो, बाहर उन्हें क्यों ढूंढ रहे हो?

30. कहै कबीर सुनो भाई, सांच कहूँ तोहिं जाई। है कोई धोबी धोए मन, ज्यूं धोबी कपड़ा धोई॥

अर्थ: भाई सुनो, अगर मैं सच कहूं, तो क्या कोई धोबी है जो मन को धो सके, जैसे धोबी कपड़े धोता है।

Kabir Ke Dohe अर्थ सहित?

संत कबीर दास के तर्कशील दोहे और ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल

संत कबीर दास के तर्कशील Kabir Ke Dohe और ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल, कबीर जैसे महानायकों की वाणी हमारे लिए किसी महान प्रेरणा से कम नहीं है। समता मूलक समाज का सपना साकार करने के लिए कबीर के विचारों को अपनाएं। कबीर के दोहे मानवता, ईश्वर, समाज और आत्म-ज्ञान पर आधारित गहरे और सार्थक संदेश देते हैं। इनसे हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर चिंतन करने की प्रेरणा मिलती है।

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